लार्ड मेकाले की शिक्षा पद्धत्ति को पाश्चात्य दृष्टि से देखने पर हम कह सकते हैं की आज रूढ़ीवाद, धर्मान्धता, कट्टरवाद का अंत हुआ है पर गहराई में जाकर विचार करने से हम देखते हैं कि कुछ नहीं बदला सिवा कलेवर के।
ऊपर से जींस-टी शर्ट पहने नजर आ रही संस्कृति आज भी उसी कच्छे-बनयान में हैं। सारा mordanization खान-पान बोलचाल और पहनावे तक सीमित है विचारों पर आज भी जंग लगी है। तमाम शिक्षा संस्थानों में महज साक्षरता का प्रतिशत बढाया जा रहा है शिक्षित कोई नहीं हो रहा है। इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट कॉलेज में दाखिला लेकर छात्र रचनात्मकता के नाम पर बस हालीवुड की फ़िल्में देखना और सिगरेट के धुंए का छल्ला बनाना सीख रहे हैं सोच तो मरी पड़ी है।
शिक्षा सफलता के लिए है सफलता स्टेटस पर निर्भर है स्टेटस सिर्फ अर्निंग और प्रापर्टी केन्द्रित है। ऐसे में कौन विचारों कि बात करे, कैसे नवीन सुसंगातियो का प्रसार हो? यहाँ तो विसंगतियों का बोझा परम्पराओं के नाम पर ढ़ोया जा रहा है। शिक्षा का हथोडा कोने में खड़े परम्पराओं के स्तम्भ को नहीं तोड़ पाता मजबूरन उस स्तम्भ पर छद्म-आधुनिकता का डिस्टेम्पर पोतना पड़ता है।
दिल में पैठी पुरानी मान्यताएं महज जानकारी बढ़ाने से नहीं मिटने वाली, सूचनाओं की सुनामी से समझ नहीं बढती। जनरल नालेज कभी कॉमन सेन्स विकसित नहीं करता। जनरल नालेज बहार से आता है कॉमन सेन्स अन्दर पैदा होता है। विस्डम कभी सूचनाओं से हासिल नहीं होता। भोजन बाहर मिल सकता है पर भूख और भोजन पचाने की ताकत अन्दर होती है। इन्फार्मेशन एक्सटर्नल हैं पर विचार इन्टरनल। अभिवयक्ति आउटर होती है पर अनुभूति इनर।
पर आज हालात सिर्फ इमारतों को मजबूत कर रहे हैं नींव का खोखलापन बरक़रार है। इसी कारण चंद संवेदनाओं के भूचाल से ये इमारतें ढह जाती हैं। फौलादी जिस्म के आग्रही इस दौर में श्रद्धा सबसे कमजोर है। उस कमजोर श्रद्धा का फायदा उठाने ठगों की टोली हर चौक-चौराहों पर बैठी है। गले में ताबीज, हाथ में कड़ा, अँगुलियों में कई ग्रहों की अंगूठियाँ पहनकर लोग किस्मत बदलना चाहते हैं। व्रत, उपवास, पूजा, अर्चना बरक़रार है पर नम्रता, शील, संयम आउटडेटेड हो गए हैं। जितनी भी तथाकथित धार्मिकता की आग धधक रही है वह लोगों के दिमाग में पड़े भूसे के कारण जल रही है इनमें तर्क कहीं नहीं है।
गोयाकि वेस्टर्न टायलेट पर बैठने का स्टाइल खालिश भारतीय है। ऐसे में खुद को माडर्न बताने का राग आलाप जा रहा है। नए वक्त में परम्पराएँ पुरानी ही है और उन परम्पराओं का अहम् भी है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर सड़ी हुई रूढ़ियाँ धोयी जा रही हैं और न्यू-माडर्नस्म के नाम पर नंगापन आयात किया जा रहा है। इन्सान की फितरत भी समंदर सी हो गयी है परिवर्तन बस ऊपर-ऊपर है तल में स्थिति जस की तस है।
विचारों के ज्वार-भाटे परम्पराओं की चट्टानों से माथा कूट-कूटकर रह जाते हैं पर सदियों से उन चट्टानों में एक दरार तक नहीं आई। शिक्षा पद्धति की उत्कृष्टता का बखान करने वाले लोगों के लिए ये सांस्कृतिक शुन्यता आईना दिखाने का काम करती है।
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