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Monday, November 21, 2011

महज सम्मान के लिए

एक पत्रकार ने एक छोटे शहर के कई व्यक्तियों से शहर के मेयर के बारे में पूछा।

"वह झूठा और धोखेबाज है" - एक व्यापारी ने कहा।

"वह घमंडी गधा है" - एक व्यापारी ने कहा।

"मैंने अपने जीवन में उसे कभी वोट नहीं दिया" - डॉक्टर ने कहा।

"उससे ज्यादा भ्रष्ट नेता मैंने आज तक नहीं देखा" - एक नाई ने कहा।

अंततः जब वह पत्रकार उस मेयर से मिला तो उसने उससे पूछा कि वह कितना वेतन प्राप्त करता है?

"अजी मैं वेतन के लिए कार्य नहीं करता"- मेयर ने कहा।

"तब आप यह कार्य क्यों करते हैं?"

"महज सम्मान के लिए।" मेयर ने उत्तर दिया।

Saturday, November 19, 2011

प्यार का सुर और दर्द का राग : रॉकस्टार


जिन्दगी में कुछ बड़ा करना है तो दर्द पैदा करो..सर्वोत्तम कला या भीड़जुटाऊ सफलता त्रासद जिन्दगी से जन्म लेती है...लेकिन एक वक़्त आता है जब हमारे पास कला, शोहरत, सफलता, पैसा सब होता है पर ये सब जिस दर्द से हासिल हुआ है वही दर्द असहनीय बन जाता है। गोयाकि जनक और जन्य दोनों बर्दाश्त के बहार होते हैं...असंतोष जिन्दगी का सच होता है।

रणवीर कपूर अभिनीत और इम्तियाज़ अली द्वारा निर्देशित फिल्म 'रॉकस्टार' कुछ इसी कथ्य को लेकर आगे बढती है। नायक की हसरत होती है एक बड़ा सिंगिंग रॉकस्टार बनने की...और उसके पास अपनी इस हसरत को हासिल करने लायक प्रतिभा भी है लेकिन फिर भी तमाम सामाजिक, आर्थिक बंदिशें उसे अपने मुकाम पे नहीं पहुँचने दे रही। इसी वक़्त कोई उसे कहता है कि तू तब तक अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर सकता जब तक तुझमें एक जूनून न हो, तड़प न हो, दर्द न हो, टुटा हुआ दिल न हो...अपने लक्ष्य को हासिल करने की दीवानगी इस कदर नायक के दिल में हैं...कि वो बुद्धिपूर्वक उस दर्द को पाना चाहता है...जानबूझ के तड़पने के लिए उसमे बेकरारी है...पर दर्द हालत के थपेड़ों से सहसा मिलता है उसके लिए कोई पूर्वनियोजन नहीं होता।

लेकिन इसी कश्मकश में नायक ये समझ बैठता है कि वो जो चाह रहा है वो मिल पाना मुश्किल है...और इसी बीच वो अपनी सब हसरत भुलाकर दोस्त बन बैठता है एक लड़की हीर कौल का...इस दोस्ती की शुरुआत में उसे नहीं पता कि यही दोस्ती उसकी जिन्दगी के सबसे त्रासद लम्हों को जन्म देगी। वो तो बस अभी सिर्फ उन पलों में डूबा है जहाँ सिर्फ खुशियाँ है, मस्ती है, बेफिक्री है..उसे नहीं मालूम कि ये बेफिक्री ही आगे चलके उसकी जिन्दगी का दर्द बनेगी और यही उसे एक अनचाही शोहरत दिलाएगी, उसे रॉकस्टार बनाएगी। सच, आनंद जितना चरम पे पहुंचकर नीचे उतरता है वो उतना ही गहरा दर्द बन जाता है।

नायक और नायिका सिर्फ अपनी दोस्ती के मजे ले रहे हैं..और लिस्ट बना-बनाकर छोटी-छोटी हसरतें पूरी करने में खुशियाँ ढूंढ़ रहे हैं। कभी वे ब्लू फिल्म देखते हैं तो कभी देशी दारू पीते हैं..ये सब करते हुए भी वो बस दोस्त होते हैं...और नहीं जानते कि उनका ये साथ अब उनकी आदत बन चुका है, प्यार बन चुका है। जो उनके अलग-अलग हो जाने के बाद भी उन्हें तड़पाने वाला है।

हालात दोनों को अलग कर देते हैं..लेकिन अलग होके भी अब वो अलग नहीं रह गए हैं...यहाँ नायक अब जनार्दन से जोर्डन बन चूका है और नायिका एक गृहणी...दोनों उस जिन्दगी को जी रहे हैं जो वो चाहते थे लेकिन फिर भी दोनों के दिल में एक कसक है..सब कुछ मन का होके भी न जाने क्यूँ सब कुछ मन का नहीं है। जिंदगी कितनी अजीब होती है हम जो चाहते है उसे हासिल कर लेने के बाद भी यही लगता है कि कुछ कमी है...और बेचैनियाँ बराबर हमें तड़पाती रहती हैं। उस तड़प को, उस कसक को बयां कर पाना मुमकिन नहीं होता और जो हम बयां करते हैं वो हमारा असल अहसास नहीं होता...क्योंकि "जो भी मैं कहना चाहूं बरबाद करें अल्फाज़ मेरे"

नायक का सुर प्यार की गहराई से जन्मा है और उस सुर में मिली हुई दर्द की राग उसे और कशिश प्रदान कर रही है...प्यार करने को वो सड्डा हक कहता है..लेकिन उसे अपने उस हक को हासिल करने में तमाम तरह के सामाजिक बंधन परेशान करते हैं...उन बंधनों से वो खुद को कटता हुआ महसूस करता है...वो कहता भी है कि आखिर क्यूँ उसे 'रिवाजों से-समाजों से काटा जाता है, बांटा जाता है..क्यूँ उसे सच का पाठ पढाया जाता है और जब वो अपना सच बयां करता है तो नए-नए नियम, कानून बताये जाने लगते हैं।' इस सामाजिक ढांचें में सफलता पचा पाना भी आसन नहीं है...आप सफल तो हो जाते हैं पर आप एक इंसानी जज्बातों का उस ढंग से मजा नहीं ले पाते जो एक आम आदमी को नसीब होता है। खुद को अपनी जड़ों से दूर महसूस करने लगते है..अपना आशियाना छूटा नजर आता है और हम वापस अपने घर आना चाहते हैं...और इस दर्द में सुर निकलता है "क्यूँ देश-विदेश में घूमे, नादान परिंदे घर आजा"

नायक अपने गीत-संगीत से ही प्यार को महसूस करता है...और उसके दिल की गहराई से निकले यही गीत आवाम की पसंद बन जाते हैं...नायक गाता है कि 'जितना महसूस करूँ तुमको उतना मैं पा भी लूँ' अपने गीत के साथ वो अपनी प्रेमिका का आलिंगन कर रहा है। संवेदना के रस में डूबकर कला और भी निखर जाती है...और साथ ही वो जनप्रिय बन जाती है।

बहरहाल, एक बहुत ही सुन्दर सिनेमा का निर्माण इम्तियाज़ ने किया है...जो उनके कद को 'जब वी मेट' और 'लव आजकल' के स्तर का बनाये रखेगी। इरशाद कामिल के लिखे गीत और रहमान के संगीत की शानदार जुगलबंदी देखने को मिली है...और फिल्म का गीत-संगीत ही फिल्म की आत्मा है...नहीं तो कहीं-कहीं इम्तियाज़ अपनी पकड़ फिल्म पे से छोड़ते नज़र आते हैं पर फिल्म का संगीत उन्हें संभाल लेता है। रणवीर की अदाकारी कमाल की है सारी फिल्म का भार उन्ही के कन्धों पर है...उन्होंने अपने अभिनय से साबित किया कि उनमे भावी सुपरस्टार के लक्षण बखूबी विद्यमान हैं...एक बेचैन गायक की तड़प को बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया है रणवीर ने। नर्गिस फाखरी खूबसूरत लगी है उनमे एक ताजगी महसूस होती है...हम उम्मीद कर सकते हैं कि कटरीना के बाद एक और विदेशी बाला अपना बालीवुड में सिक्का जमा सकती है।

खैर, जुनूनी मोहब्बत, मोहब्बत पे समाजी बंदिशें, सफलता की हकीकत से रूबरू होना चाहते हैं और सुन्दर गीत-संगीत और फ़िल्मी रोमांटिज्म पसंद करते हैं... तो 'रॉकस्टार' कुछ हद तक आपकी इसमें मदद कर सकती है...

Friday, November 18, 2011

नया साल नए सपने ?

पिछली जनवरी में प्रार्थना समाज में सर्वदेशीय उन्नति एवं प्रगति के लिये हम एकत्रित हुए तो एक सज्जन ने एक दिलचस्प बात कही. वे बोले कि हर नये साल वे कुछ न कुछ निर्णय जरूर लेते हैं, लेकिन कभी भी उन निर्णयों का पालन नहीं कर पाते. इस कारण उन्होंने तय किया है कि इस साल वे किसी भी तरह का निर्णय नहीं लेंगे!

मेरे मन में एकदम से दो बातें कौंध गईं. पहली बात – उन्होंने जो किया वह क्या एक तरह का निर्णय नहीं था? बिल्कुल था. हां उस निर्णय का सार यह था कि वे इस साल आगे बढने के लिये कोई भी सक्रिय कोशिश नहीं करेंगे. दूसरे शब्दों में कहा जाये तो उन्होंने विफलता के लिये निर्णय ले लिया था. एक उदाहरण देकर इसे स्पष्ट किया जा सकता है. मान लीजिये कि दो मित्र ऊंचीकूद की तय्यारी कर रहे हैं. उन में से एक दोस्त बाकायदा धागा बांध कर उसके ऊपर से कूदता है. हर सफलता पर वह धागे को कुछ ऊचा करता जाता है.

दूसरा मित्र बिना निशान आदि लगाये कूदता है. हर बार वह और अधिक उत्साह के साथ कूदने की कोशिश करता है. इस तरह साल भर वे दोनों ऊंचीकूद की तय्यारी करते रहते हैं. साल के अंत में प्रतियोगिता होती है. दोनों कूदते हैं. फल क्या होगा?

जो व्यक्ति बिना किसी लक्ष्य के कूदता है, वह साल भर के परिश्रम के बावजूद कोई खास तरक्की नहीं कर पाता है, लेकिन जो व्यक्ति लक्ष्य के साथ कूदता है वह बहुत अधिक ऊचाई तक चला जाता है. जीवन के हर पहलू में हमारा लक्ष्य बहुत बदलाव लाता है.

आप सब के लिये मेरी कामना है कि सन 2012 आप के लिये बहुत ऊचे पहुंचने का साल निकले!

राजा से तो बेहतर वृक्ष है

एक लड़का आम के वृक्ष पर पत्थर मारकर आम तोड़ने का प्रयास कर रहा था। गलती से एक पत्थर अपने लक्ष्य से भटककर वहां से गुजर रहे राजा को लगा। राजा के सैनिकों ने दौड़कर उस लड़के को पकड़ लिया और उसे राजा के समक्ष प्रस्तुत किया ।

राजा ने कहा -"इसके लिए तुम सजा के भागीदार हो। ............ताकि फिर कभी कोई राजा के ऊपर पत्थर फेंकने की हिम्मत न करे, अन्यथा ऐसे तो शासन चलाना मुश्किल हो जाएगा।"

लड़के ने विनयपूर्वक उत्तर दिया - "हे वीर एवं न्यायप्रिय राजन, जब मैंने आम के वृक्ष पर पत्थर मारा तो मुझे उपहार स्वरूप मीठे रसीले फल खाने को मिले और जब आपको पत्थर लगा तो आप मुझे दंड दे रहे हैं....आप से भला तो वृक्ष है।"

राजा का सिर शर्म से झुक गया।

Wednesday, November 9, 2011

समृद्ध इण्डिया की उत्सवधर्मिता और लाचार भारत की बदनसीबी


दीपावली के साथ भारत में उत्सवों का एक दौर हर साल विदा ले लेता है और दूसरा दौर ग्यारह दिन बाद ही दस्तक दे देता है...जी हाँ अवरुद्ध पड़े शादी व्याह की बहार आ जाती है। भारत वो देश है जिसकी रगों में उत्सव खून बनकर बहते हैं। देश की सामाजिक संरचना या कहें भारतीय फितरत ही ऐसी है कि उसे हर वक़्त झूमने के अवसर की तलाश होती है गोयाकि खुद के घर में शादी न हो तो दूसरे की बारात में ठुमकने से भी परहेज नहीं है। इस असल भारतीय स्वभाव ने ही हमारी संस्कृति को लचीला स्वरूप प्रदान किया है। यही कारण है कि ये संस्कृति जितने जोश-खरोश के साथ दीवाली, ईद और रक्षाबंधन मानती है उतने ही उत्साह से वेलेंटाइन डे, मदर्स-फादर्स डे जैसे पश्चिमी दिनों को मनाती है।

उत्सवप्रियता का ये स्वभाव इस कदर मानवीय है कि जन्म की खुशियाँ तो इसमें शुमार हैं ही वरन मौत की रसोई भी शामिल है। इस मानवीय पृकृति ने ही विलासिता, बाजारवाद और झूठी शान-शौकत की प्रवृत्ति में इजाफा किया है।

आज हम त्यौहारों-उत्सवों के रंग में खुद नहीं रंगते बल्कि इन उत्सवों को अपने रंग में रंग देते हैं। अपनी दूषित प्रकृति से उत्सवों को दूषित कर दिया जाता है। मैं उत्सवप्रियता या प्रसन्नचित्तता का विरोधी नहीं हूँ बल्कि ये कहना चाहता हूँ कि हमने उत्सवों में अपनी प्रसन्नता के मायने जो तय किये हैं वो ग़लत हैं। अपने उत्सव धर्म से जो हमने प्रक्रितिधर्म को ठेस पहुचाई है वो ग़लत है। अपने परिवेश को भूलकर जो उत्साह मनाया है वह ग़लत है।

बात जटिल लग रही होगी सरल करने का प्रयास करता हूँ। दरअसल अपने हिन्दुस्तानी परिवेश को गहनता से देखा जाये तो यह हमें कतई उस उत्सव धर्म में शरीक होने कि इज़ाज़त नहीं देता जो हम मना रहे हैं। बशर्त आप एक उत्सवधर्मी न होकर एक इन्सान के नाते बात पर गौर करने की कोशिश करें। जिस देश की सत्तर प्रतिशत आबादी दो वक़्त का पेट भर खाना नहीं खा पा रही उस देश में कैसे आप ख़ुशी के जाम छलका सकते हैं, लाखों-करोड़ो रुपये महज़ पटाखों पर खर्चे जा सकते हैं। जिस देश में लाखों-करोड़ो बच्चे कुपोषण, भुखमरी का शिकार है या जिनके सर माँ-बाप का साया नहीं हैं वहां कैसे लोगों के गले के नीचे महँगी मिठाइयाँ उतर सकती हैं। जहाँ किसान आत्महत्या कर रहा है उसके पास क़र्ज़ चुकाने का चंद पैसा नहीं है जहाँ महंगाई के बोझ तले इन्सान अपने बच्चों को रोटी नहीं खिला पा रहा वहां कैसे धनतेरस जैसे अवसरों पर सोने-चाँदी कि दीनारें महज शगुन के तौर पर खरीदी जा सकती हैं।

हालात, उत्सवों पर वास्तव में बहुत थोड़े ही बदलते हैं कि आम दिनों में समृद्ध इण्डिया एक पैग पीता है और उत्सवों में दो,तीन या चार जबकि लाचार भारत आम दिनों में बस रोता है तो उत्सवों में उसका चेहरा हल्की मुस्कराहट लिए आंसू बहता है। आंसू इस लाचार भारत का यथार्थ है और मुस्कान आदर्श।

वैज्ञानिक विकास और तकनीकी दक्षता ने भी खुशहाली सिर्फ उस समृद्ध इण्डिया के हिस्से में दी है...फेसबुकिया सेलिब्रेशन उसे ही नसीब है वही इन सोशल नेट्वर्किंग साइट्स पे वधाईयां लाइक और शेयर कर रहा है। लाचार भारत उस दिन भी रिक्शा चला रहा है, इमारतें बना रहा है, गड्ढे खोद रहा है या समृद्ध इण्डिया के घरों,कालोनियों,सड़कों की सफाई में सलंग्न है। हाँ ये बात है कि किसी तरह उसे इस समृद्ध इण्डिया के उत्सवों का शोर ये बता देता है कि आज कुछ खास दिन है और इस खास दिन का पता लगने पर वो चेहरे पे मुस्कान लाकर फिर काम में लग जाता है।

वैज्ञानिक विकास इस लाचार भारत के विनाश का गड्ढा खोद रहा है उत्सवधर्मिता इसकी लाचारी को और बढ़ा रही है। प्रकृति और संसाधनों को जितनी हानि ये समृद्ध इण्डिया पहुंचा रहा है..उतना लाचार भारत नहीं। उल्टा वह तो उस हानि से त्रस्त ही हो रहा है। समृद्ध इण्डिया की जरुरत दो की है तो वह दो सौ का उपभोग कर रहा है और लाचार भारत की जरुरत एक की है तो वो उस एक को पाने के लिए ही संघर्षरत है। एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व के एक तिहाई संसाधनों पे विश्व जनसंख्या का सिर्फ छटवा हिस्सा उपभोग कर रहा है तो सोचिये एक बड़े जनसमूह के पास कितने संसाधन हैं? महंगाई, ग्लोबल वार्मिंग, बेरोजगारी, अशिक्षा, गरीबी जैसी सारी समस्याओं ने इस लाचार भारत के घर की ओर रुख कर लिया है।

अखवारों में आने वाले विकास के आंकड़े एकतरफा हैं और विनाश के आंकड़े भी एकतरफा है। समृद्ध इण्डिया और लाचार भारत के बीच बस आर्थिक असंतुलन नहीं, उत्सव असंतुलन भी है। समृद्ध इण्डिया संयम और मर्यादा में उपभोग की नीति विसरा चूका है। उसकी उत्सवधर्मिता अब विलासिता बन चुकी है या कहें उसने खुश होने के जो मानक बनाये हैं वह उसके व्यसन बन चुके हैं। उसका उत्सवप्रियता पे खर्च बढ़ता जा रहा है और अय्याशियाँ ख़ुशी का रूप लेती जा रही हैं। उत्सवी खुशियाँ सिर्फ कालीन के ऊपर हैं कालीन के नीचे लाचार भारत की तड़प देखने की ज़हमत कोई नहीं कर रहा है।

आश्चर्य होता है एक सिर्फ इसलिए परेशान है कि उसे होटल में पिज्जा टाइम पे नहीं मिला या उसकी ब्रांडेड ज्वेलरी का आर्डर डिलीवर होने में देरी हो गयी..तो दूसरा भूखा रहकर भी अपनी कसक जाहिर नहीं कर पा रहा। एक इसलिए परेशान है कि उसके बच्चे को मन के इंग्लिश मीडियम स्कूल में एडमिशन नहीं मिला..तो दूसरा अपनी आँखों के सामने भूख से मरते बच्चे को देखकर भी आंसू नहीं बहा पा रहा। एक इसलिए गुस्सा है है कि उसकी बेटी की शादी के लिए मनपसंद मैरिज गार्डन नहीं मिला..तो दूसरा कदम-कदम पे दुत्कारे जाने के बाद भी अपना गुस्सा नहीं दिखा पा रहा। गोयाकि आंसू बहाने, गुस्सा दिखाने, दर्द में कराहने के लिए भी स्टेटस का होना जरुरी है।

बहरहाल, किसे पड़ी है दुनिया-ज़माने के सोचने की..अपनी उत्सवी फुलझड़ियाँ जलते रहना चाहिए, अपनी गिलास में जाम भरा होना चाहिए....हम तो लाचार भारत पे यह कहके पल्ला झाड़ सकते हैं कि ये उनके अपने कर्मों का फल है..हम अपने उत्सवों या कहें अय्याशियों को क्यों फीका करें। करवाचौथ और नवदुर्गा पे हम व्रत रखके उत्सव मनाते हैं..लाचार भारत भूखा रहकर हर दिन बेउत्सव व्रत करता है।

खैर, अपनी अय्याशियों की लगाम हमें टाईट करने की जरुरत नहीं है और वैसे भी हमें हमारे उत्सवी पटाखों के शोर में लाचारियों की चीखें सुनाई कहाँ देती हैं............................

Saturday, October 22, 2011

'बोल' के लव आज़ाद हैं तेरे...



पाकिस्तानी फिल्म 'बोल' देखने का अवसर मिला। हिन्दुस्तानी सिनेमा के इतर एक बेहद उम्दा और अर्थपूर्ण फिल्म जो व्यवस्था, रूढ़ीवाद एवं समाज की विसंगतियों के विरुद्ध एक उन्माद पैदा करती है। छद्म- धार्मिकता और पाखंड की तस्वीर दिखाती है।

निर्देशक शोएव मंसूर की एक और सार्थक फिल्म जो इंसानी हैवानियत और उसके असल रूप को बेनकाब करती है। परिवार नियोजन, महिला-सशक्तिकरण, धार्मिक अंधविश्वास, छद्मपुरुष मानसिकता, रूढ़िवादिता जैसे मुद्दों के खिलाफ जिस संजीदगी से स्वर मुखरित किया है वो सोचने पर विवश करती है। लगता है कैसे ये फिल्म पाकिस्तानी सेंसर बोर्ड से बचकर हम सब तक पहुच गई।

'बोल' ह़र उस औरत का स्वर हैं जो खुले आकाश में उड़ना चाहती है, जो पाक पवन में साँस लेना चाहती है या कहे जो असल में जीना चाहती है। जिसकी दुनिया चौके की चारदिवारी तक सीमित नहीं, या जिसका जिस्म बिस्तरों पे ही बयां नहीं होता वो इन सबसे परे अपनी एक अलग शक्सियत भी रखती है। उसके जज्बात-
तमन्नायें कुछ और भी चाहते हैं। लेकिन पुरुष उन जज्बातों को नहीं सिर्फ जिस्म को देखते हैं। फिल्म में एक दृश्य है जब हकीम साहब अपनी बेगम से कहते हैं "खुदा ने आपको दो ही तो हुनर बख्शे हैं एक स्वादिष्ट खाना पकाना और खुबसूरत औलादें पैदा करना " औरत को देखने का प्राय: यही नजरिया समाज में हैं यही कारण है कि आज तक बड़े से बड़े चित्रकार औरत को जिस्म से परे नहीं देख पाए।

ये फिल्म पाकिस्तानी या मुस्लिम समाज की ही कहानी बयां नहीं करती बल्कि हर उस समाज, हर इन्सान, हर वर्ग को आइना दिखाती है जहाँ सारे कायदे, सारे कानून, रस्मों-रिवाज़, मर्यादाएं सिर्फ और सिर्फ महिलाओं पर ही लामबंद कर दिए जाते हैं। जहाँ पुरुष हर तरह से अपने चरित्र की धज्जियाँ उड़ाते हुए भी शरीफ बना रहता है। जहाँ बड़े-बड़े पढ़े-लिखे लोग रुढियों के गुलाम होते हैं भले ही वह दूसरों को कितने भी आधुनिक ख़यालात धारण करने के उपदेश दें। लेकिन जब बात खुद पर आती है तो परम्पराओं की आड़ में रुढियों को पनाह दी जाती है। ये देख लगता है साक्षरता सिर्फ कागजों पर बढ़ी है विचारों में नहीं।

लेकिन इन्सान भूल जाता है की औरत जब तक खामोश है तब तक ही पुरुष वर्चस्व कायम है यदि वो 'बोल' उठे तो जमीन कांप उठती हैं और आसमान झुक जाता है। मर्द की जुवान बंद हो जाती है और बाजुओं की जोर-आज़माइश शुरू। एक दृश्य में बेटी अपने रुढ़िवादी पिता से कहती है "अब्बा! आप मर्द हैं ना जहाँ वेजुवां हुए वहां हाथ चलाने लगे।" पुरुष की दरिंदगी और बेरहमी को हर फ्रेम में बखूबी दर्शाया है शोएब मंसूर ने।

यूँ तो इन्सान की निगाहें और हवस हर तरफ महिला को तलाशती है पर यदि औलाद की बात हो तो बेटा ही चाहिए, बेटी को कलंक समझा जाता है। बेटे की चाह में औलादों की कतार लगा दी जाती है और यदि बेटा न हो तो इसका दोष भी औरत के सिर मढ़ा जाता है। सदियों से धार्मिक मान्यताओं का सहारा लेकर या औलाद को खुदा का करम जानकर इसी तरह बच्चों की संख्या बढ़ाई जा रही है फिर भले उनकी परवरिश में बेरुखी बरती जाये। फिल्म अपने अंत में यही प्रश्न छोडती है कि "क्या मारना ही गुनाह है पैदा करना नहीं"। क्या पहले से ही इस धरती पे भूखे बेवश लोग कम थे जो और लोगों को तड़पने के लिए धरती पे लाया जाये। जब ढंग से पाल नहीं सकते तो पैदा करने का हक किसने दिया।

फिल्म न जाने कितने ऐसे संगीन मुद्दों को उठाती है जो समाज की नस-नस में बसकर उसे बीमार बना रहे हैं। चाहे किन्नरों को देखने का नजरिया हो, चाहे महिलाओं कि शिक्षा, जातिवादी-सम्प्रदायवादी मानसिकता हो, या ईश्वरकर्तृत्व की घोर अतार्किक सोच हो हर तरफ ध्यान खींचने की कोशिश की गयी है। जहाँ भारत-पाकिस्तान के मैच में जीत-हार के लिए खुदा या भगवान को जिम्मेदार माना जाता हो, जहाँ संकीर्ण मानसिकता दो जातियों की बात तो दूर एक कुरान को मानने वाले सिया-सुन्नियों में भेद करती हो, जहाँ अपनी ही औलाद का लोकलाज वश क़त्ल किये जाने जैसा बेरहम कदम उठाया जाता हो वहां कैसे आधुनिक विचार और सुसंगतियों का प्रसार हो सकता है।

बहरहाल, एक कमाल का सिनेमा है 'बोल'। जो न सिर्फ कथा के स्तर पर बल्कि तकनीकी स्तर पर भी अद्भुत है। ख़ूबसूरत छायांकन, हृदयस्पर्शी संवाद, सुन्दर संगीत व कमाल की अदाकारी इसे एक गुणवत्तापरक सिनेमा बनाती है... और इन सबमे सबसे बड़ा कमाल किया निर्देशक शोएब मंसूर ने जिन्होंने 'खुदा के लिए' के बाद एक बार फिर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया और सिद्ध किया कि उद्देश्य महान हों तो सीमित संसाधनों में भी महान फिल्म बनायीं जा सकती है।

यदि स्वच्छ कालीन के नीचे जमी समाज की गंदगी को, शिक्षित-सभ्य लोगों की बेहयाई को, धार्मिक विश्वासों के पीछे छुपे पाखंड-अंधविश्वासों को देखना है तो 'बोल' देखिये....शायद ये आपको अपनी गिरेबान में झाँकने का माध्यम भी साबित हो।

Thursday, October 20, 2011

परम्पराओं का आग्रह और शिक्षा



लार्ड मेकाले की शिक्षा पद्धत्ति को पाश्चात्य दृष्टि से देखने पर हम कह सकते हैं की आज रूढ़ीवाद, धर्मान्धता, कट्टरवाद का अंत हुआ है पर गहराई में जाकर विचार करने से हम देखते हैं कि कुछ नहीं बदला सिवा कलेवर के।

ऊपर से जींस-टी शर्ट पहने नजर आ रही संस्कृति आज भी उसी कच्छे-बनयान में हैं। सारा mordanization खान-पान बोलचाल और पहनावे तक सीमित है विचारों पर आज भी जंग लगी है। तमाम शिक्षा संस्थानों में महज साक्षरता का प्रतिशत बढाया जा रहा है शिक्षित कोई नहीं हो रहा है। इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट कॉलेज में दाखिला लेकर छात्र रचनात्मकता के नाम पर बस हालीवुड की फ़िल्में देखना और सिगरेट के धुंए का छल्ला बनाना सीख रहे हैं सोच तो मरी पड़ी है।

शिक्षा सफलता के लिए है सफलता स्टेटस पर निर्भर है स्टेटस सिर्फ अर्निंग और प्रापर्टी केन्द्रित है। ऐसे में कौन विचारों कि बात करे, कैसे नवीन सुसंगातियो का प्रसार हो? यहाँ तो विसंगतियों का बोझा परम्पराओं के नाम पर ढ़ोया जा रहा है। शिक्षा का हथोडा कोने में खड़े परम्पराओं के स्तम्भ को नहीं तोड़ पाता मजबूरन उस स्तम्भ पर छद्म-आधुनिकता का डिस्टेम्पर पोतना पड़ता है।

दिल में पैठी पुरानी मान्यताएं महज जानकारी बढ़ाने से नहीं मिटने वाली, सूचनाओं की सुनामी से समझ नहीं बढती। जनरल नालेज कभी कॉमन सेन्स विकसित नहीं करता। जनरल नालेज बहार से आता है कॉमन सेन्स अन्दर पैदा होता है। विस्डम कभी सूचनाओं से हासिल नहीं होता। भोजन बाहर मिल सकता है पर भूख और भोजन पचाने की ताकत अन्दर होती है। इन्फार्मेशन एक्सटर्नल हैं पर विचार इन्टरनल। अभिवयक्ति आउटर होती है पर अनुभूति इनर।

पर आज हालात सिर्फ इमारतों को मजबूत कर रहे हैं नींव का खोखलापन बरक़रार है। इसी कारण चंद संवेदनाओं के भूचाल से ये इमारतें ढह जाती हैं। फौलादी जिस्म के आग्रही इस दौर में श्रद्धा सबसे कमजोर है। उस कमजोर श्रद्धा का फायदा उठाने ठगों की टोली हर चौक-चौराहों पर बैठी है। गले में ताबीज, हाथ में कड़ा, अँगुलियों में कई ग्रहों की अंगूठियाँ पहनकर लोग किस्मत बदलना चाहते हैं। व्रत, उपवास, पूजा, अर्चना बरक़रार है पर नम्रता, शील, संयम आउटडेटेड हो गए हैं। जितनी भी तथाकथित धार्मिकता की आग धधक रही है वह लोगों के दिमाग में पड़े भूसे के कारण जल रही है इनमें तर्क कहीं नहीं है।

गोयाकि वेस्टर्न टायलेट पर बैठने का स्टाइल खालिश भारतीय है। ऐसे में खुद को माडर्न बताने का राग आलाप जा रहा है। नए वक्त में परम्पराएँ पुरानी ही है और उन परम्पराओं का अहम् भी है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर सड़ी हुई रूढ़ियाँ धोयी जा रही हैं और न्यू-माडर्नस्म के नाम पर नंगापन आयात किया जा रहा है। इन्सान की फितरत भी समंदर सी हो गयी है परिवर्तन बस ऊपर-ऊपर है तल में स्थिति जस की तस है।

विचारों के ज्वार-भाटे परम्पराओं की चट्टानों से माथा कूट-कूटकर रह जाते हैं पर सदियों से उन चट्टानों में एक दरार तक नहीं आई। शिक्षा पद्धति की उत्कृष्टता का बखान करने वाले लोगों के लिए ये सांस्कृतिक शुन्यता आईना दिखाने का काम करती है।